Monday, October 18, 2010

इच्छापूर्ति का वरदान

                           

देवताओं और दानवों को क्या चाहिये था और क्या मिला, यह तो समुद्र मंथन में तय हो गया था।  बचा इंसान, तो उसकी इच्छाओं की पूर्ति अभी भी बाकी थी। सॄष्टि के पालनहार हरि विष्णु भी सोच रहे थे कि मनुष्य की सोच कहाँ तक पहुँच सकती है। आखिर एक दिन उन्होंने मनुष्य को बुलाया और उसकी हर इच्छा पूर्ण करने का वचन दिया। दिन और समय निश्चित हुआ और मनुष्य पूरी तैयारी के साथ निश्चित समय से पहले ही अपनी लम्बी लिस्ट ले कर पहुंचा और रोटी से शुरू होकर अपनी कामनाये बढ़ाते बढ़ाते जीवन की सब सुख सुविधायें मांग बैठा। लालची प्रवृत्ति के कारण मांगें थम ही नहीं रही थीं। अचानक उसकी नज़र विष्णुजी के उस थैले पर पडी, जो उसकी सभी कामनायें पूरी कर रहा था। लालच भरी निगाहें विष्णुजी से बोली “प्रभु आपको इन-सब सामान की क्या ज़रूरत? मुझे यही दे दीजिये, आप भी इसके बोझ से थक गये होंगे”। मुस्कुराकर हरि ने वो थैला उसे थमा दिया और चालाकी से उसमें से एक छोटी सी पोटली अपने पैर के अंगूठे तले छुपा ली।
सबके जाने के बाद लक्ष्मीजी के यह पूछ्ने पर कि ”इसमें ऐसा क्या है?” विष्णु जी ने कहा “इसमें शान्ति है, जो सिर्फ़ मेरी शरण में है और अगर कोई इसे पाना चाहता है, तो उसे वो सब छोडकर मेरी शरण में आना पडेगा।“